बाइबिल क्या है ?
बाइबिल की उत्पति और सरधना : बाइबिल की विषय-सूची पर सरसरी दृष्टि डालते ही पाठक समझ जायेगा कि यह एक पुस्तक नहीं, वरन् अनेक रचनाओं का संकलन है । यहीँ नहीं, इनके रचना-कालों का विस्तार दस शताब्दियों से अधिक है । ये पुस्तकें कईं लेखकों की रचनाएँ है, जिनकी मूल-भाषा कभी इब्रानी है और कभी यूनानी है । इनकी साहित्यिक शैली में भी भित्रता पायी जाती है इनमें कहीं ऐतिहासिक वृत्तान्त है, कहीं काव्य , कहीं नियमावली, कहीं उपदेश, कहीं पत्र और कहीं जीवन-चरित ।
एक तिहाई मानवजाति द्वारा पवित्र माने जाने वाले इस ग्रन्थ का सामान माम बाइबिल है। बाइबिल शब्द यूनानी शब्द बिब्लोस से व्युत्पत्र है, जिसका अर्थ पुस्तक है ।
वर्तमान बाइबिल की तिहत्तर पुस्तकों में छियालीस, अर्थात् बाइबिल की प्राचीनतम रचनाएँ, ईसा मसीह के समय किसी-न-किसी रुप में विद्यमान थी । वे यहूदियों द्वारा आदर से संरक्षित थीं और वे उन्हें ईश-वाणी का दर्जा देते तथा अपने धार्मिक जीवन की नियामक समझते ये ।
ईसवी सन् की पहली शताब्दी में नवगठित ईसाई शिष्यमण्डती ने अधिकांश प्रचीन धर्मंपुस्तकों को मान्यता दी और वह उन्हें अपनी धार्मिक विरासत समझने लगी, यद्दपी वह इन पुस्तकों को, विशेषत भजनों और नबियों के ग्रन्धों को, अपने दृष्टिकोण से देखने लगी । अपने पुनरुत्थान के बाद अपने भक्त शिष्यों के साथ रहते समय ईसा ने इस भेद का उदघाटन कर उन्हें यह नया दृष्टिकोण प्रदान किया था कि प्राचीन रचनाएँ, विशेषत, भविष्यवाणियाँ, अपने आप में तथा उनके मुक्तिदायक जीवन, मृत्यु और पुनरुत्यान में चरितार्थ हो गयी है। ईसा ने एक प्रसिद्ध प्रसंग में अपने दो शिष्यों को इस शिक्षा का आभास दिया था: “निर्बुद्वियों ! नबियों ने जो कुछ कहा है, तुम उस पर विश्वास करने में कितने मन्दमति हो ! क्या यह आवश्यक नहीं था कि मसीह वह सब सहे और इस प्रकार अपनी महिमा में प्रवेश करें ? ‘ ‘ तव ईसा ने मूसा से ले का अन्य सब नबियों का हवाला देते हुए, अपने विषय में जो कुछ धर्मग्रन्थ में लिखा है, वह सब उन्हें समझाया” (लूक्स 24 : 25-27 )। सभी शिष्यों से विदा होने के पहले उन्होंने पुन: यह शिक्षा दी थी ,”मैने तुम्हारे साथ रहते समय तुम लोगों से कहा था कि जो कुछ मूसा की संहिता में और नबियों में तथा भजनों में मेरे विषय में लिखा है, सब का पूर हो जाना आवश्यक है ।
तब उन्होंने उनके मन का अन्धकार दूर करते हुए उन्हें धर्मग्रन्थ का मर्म समझाया और ‘ उन से कहा “ऐसा ही लिखा है कि मसीह दु ख भोगेंगे, तीसरे दिन मृतकों में से जी उठेंगे और उनके नाम पर येरुसालेम से ले कर सभी राष्ट्रों को पापक्षपा के लिए पश्चाताप का उपदेश दिया जायेगा । तुम इन बातों के साक्षी हो” (लूक्स, 24 : 44-48 ) । अत: ईसा कौ शिष्य-मण्डली, अर्थात् कलीसिया में यह विश्वास पैदा हो गया कि हम लोग ही प्राचीन यहूदी धार्मिक साहित्य पूर्ण रुप सै समझ सकते हैं।
ईसवीं सन् की पहली शताब्दी के दौरान ईसाई उपदेशकों ने अनेक रचनाएँ लिखीं, जिन में ईसा की शिक्षा कौ व्याख्या पायी जाती है , और नवोदित ईसाई थार्मिंक जीवन के स्वरूप पर प्रकाश डाला जाता है । उदाहरणार्थ, पौलुस और अन्य शिष्यों के. पत्र, चार सुसमाचार , लूकस का प्रेरित-चरित और योहन का प्रकाशना-ग्रन्थ । इन रचनाओं को थीरे-यीरे ईश्वर की वाणी का दर्जा प्राप्त हो गया और फलत , वे बाइबिल में सम्मिलित की गयीं। निष्कर्ष यह कि यद्यपि बाइबिल के पूर्वार्ध की पुस्तकों की उत्पत्ति यहूदी राष्ट्र में दुई यी तथापि उनकी प्राचीन रचनाओं के साथ ईसाई युग की अर्वाचीन रचनाओं को सम्पूर्ण बाइबिल अर्थात् ईसाई सम्पत्ति समझा जाने लगा। ईसाई क्लीसिया की इन प्राचीन पुस्तकों का अभिप्राय पहचानने का अघिकार है, तथा उसी अघिकार से अर्वाचीन साहित्य की रचना दुई है।
बाइबिल: प्रभु की वाणी
कलीसिया ने ही इन सब रचनाओं को मान्यता प्रदान की है, क्योकिं कलीसिया इन्हें ईश्वर की वाणी समझती है। बाइबिल की रचनाएं अद्वितीय और अनन्य रूप से ईश्वर की वाणी हैं-ऐसा विश्वास कलीसिया का है। तिमथी के नाम पत्र लिखते समय पौलुस ने यह बात स्पष्ट कर दी है, “धर्मग्रन्थ तुम्हें उस मुक्ति का ज्ञान दे सकता है, जो ईसा मसीह में विश्वास करने से प्राप्त होती है। पूरा धर्मग्रन्थ ईश्वर की प्रेरणा सै लिखा गया है। वह शिक्षा देने के लिए, भ्रान्त धारणाओं का खण्डन करने के लिए, जीवन के सुधार के लिए और सदाचरण का प्रशिक्षण देने के लिए उपयोगी है, जिससे ईश्वर भक्त सुयोग्य और हर प्रकार के सत्कार्य के लिए उपयुक्त बन जायेँ” ( 2 तिम० 3 :15-17 )।
ईश्वर ने बाइबिल की पुस्तकों की रचना में किस प्रकार प्रेरणा प्रदान की थी, जिसके कारण ये पुस्तके ईश्वर की वाणी कंही गयी है, यह एक दिव्य रहस्य है । हमारा विश्वास है कि ईश्वर के पुत्र ने इस प्रकार देहथारण किया कि पूर्ण रूप से ईश्वर रहते हुए मी वह पूर्ण रुप से मनुष्य बन गये। ऐसै ही यह भी कहा जा सकता है कि बाइबिल की रचनाएँ पूर्ण रूप से मनुष्यकृत हैं, फिर मी उनमें ईश्वर के शब्द अवतरित हुए हैं। अन्तिम विश्लेषण में यह एक दिव्य रहस्य है।
बाइबिल की पुस्तकें मानव द्वारा रचित हैं और ईश्वर द्वारा भी। हम समझ सकते है कि मानवीय साहित्यिक रचना क्या है। किंतु ईश्वरीय प्रेरणा तो अदृश्य कृपा है और वह पूर्णत: रहस्यमय है। उसकी सहायता से पवित्र लेखकों ने अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा और अपनी व्यक्तिगत शैली अक्षुण्ण रखते हुए, तथा देश-काल की सीमाओं में आबद्ध रह’ कर वही लिखा, जो ईश्वर चाहता था।
पवित्र लेखक एक दिव्य प्रेरणा के पात्र थे, जिससे उन्होंने मनुष्यजाति के लिए ईश्वर का संदेश लिखा तथा ईश्वर के सन्देश के प्रभाव के दायरे में आये दस शताब्दियों के स्त्री-पुरुषों, उनके विश्वासों और संशयों, वीरता और कायरता, सफलता और विफलता, धर्मं और अधर्मं का वृत्तान्त लिपिबद्ध किया। . बाइबिल से हम यह जान सकते है कि किस प्रकार ईश्वर मनुष्यजाति के साथ प्रेम का सम्बन्य स्थापित करना चाहता है तथा मनुष्यों की प्रतिक्रया कैसी होती है। इसाएल के साथ ईश्वर के प्रेम की कथा मूसा के द्वारा प्राचीन विधान की स्थापना पर आधारित हे । बाइबिल का यह खण्ड प्राचीन विधान कहलाता है। इस्राएली वंश में उत्पत्र ईसा मसीह ने किस प्रकार समस्त मनुष्यजाति के साथ प्रेम के विधान की स्थापना की, यह इसके उत्तरार्ध में पाया जाता है, जो नवीन विधान कहलाता है। बाइबिल की प्रामाणिकता की व्याप्ति ईश्वर और मनुष्यों के बीच के धार्मिक सम्बन्ध तक है। अन्य क्षेत्रों में, जैसै इतिहास, विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, भूगोल आदि में इसमें आधिकारिक प्रवचन नहीं पाये जाते है।
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