इस प्रकार प्रार्थना करों,,,
प्रार्थना ईश्वराराधना है । ईश्वर की आराधना करके स्तुति करें, धन्यवाद अदा करें, उनके वरदानों का महत्व बखान कर अपनी ज़रूरतें, फरियादें ओर कठिनाइयाँ पेश करें, पापों की घोषणा करके पश्चात्ताप करें और पापमुक्ति पायें, यहीँ प्रार्थना है ।
ईसा एक बार प्रार्थना कर रहे थे । प्रार्थना समाप्त होने पर उनके शिष्य ने उंनसे कहा, प्रभु! हमें प्रार्थना करना सिखाइए, जैसे योहन ने अपने शिष्यों को सिखाया’ । ईसा ने उन से कहा, इस प्रकार प्रार्थना किया करो: पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये । तेरा राज्य आये । हमें प्रतिदिन हमारा दैनिक आहार दिया कर । हमारे पाप क्षमा कर क्योंकि हम मी अपने सब अपराधियों को क्षमा काते हैं, और हमें परीक्षा में न डाल (लूकस 11:1-2)।
स्वर्ग में विराजमान हमारे पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये । तेरा राज्य आये…. बुराई से हमें बचा (मत्ती 6:9-12) सन्त लूकस के सुसमाचार में , तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में है, वेसे पृथ्वी पर भी पूरी हो, बुराई से हमें बचा ! ये पंक्तियाँ नहीं है । आदर और भक्ति कै साथ स्वर्ग में विराजमान हमारे पितां! बुला कर, उनका गुणगान करके, हमारी ज़रूरतों को पेश कर प्रार्थना करने की रीति हम अपनाते हें । प्रभु हमारे पिता हैं, हम उनकी सन्तानें हैं, वे स्वर्ग में राज करते हैं । हम इस दुनिया में भटक रहे हैं । पिता की घोषणा करके उन्हें स्तुति और आराधना सौंप कर, हम अपने भौतिक , और आध्यात्मिक ज़रूरतों को आप के सामने समर्पण करते हैं । हमारी प्रार्थनाओं के पाठ और भाव आदि ईसा ने जोड दिये । हम रोजाना भोजन ही माँगते हैं । बुराई से हमें बचाने की प्रार्थना भी करते हैं । साथ ही पापों की माफ़ी माँगते हैं । जैसे हम अपने अपराधियों को क्षमा करते हैं, वेसे हमें भी क्षमा करें। हम विनती करते हैं ।
जब हम प्रार्थना करते हैं, तब हमारा मनोभाव केसे हो? ईसा ने कहा, ढोगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो । वे सभागृहों में और चौकों पर खडा होकर प्रार्थना करना पसन्द करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें,मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वे अपना पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं । जब तुम प्रार्थना करते हो, अपने कमरे में जा कर द्वार बन्द कर लो और एकान्त में अपने पिता से प्रार्थना करो । तुम्हारा पिता जो एकान्त को मी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा । प्रार्थना करते समय गेर-यहूदियों की तरह रट नहीं लगाओ । वे समझते हैं कि लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ करने से हमारी सुनवाई होती है । उनके समान नहीं बनो क्योकि तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन किन बातों की ज़रूरत है’ ( मत्ती 6:5-8) ।
प्रार्थना कोई बाहरी दिखावा नहीं । प्रार्थना के लिए मन और शरीर का संयम चाहिए । तब तो आन्तरिक और बाहरी संशुद्धि की ज़रूरत है। प्रार्थना के लिए इस संशुद्धि की ज़रूरत हे । इसलिए ईसा ने कहा था न? कि कमरे में जाकर द्वार बन्द करके रहस्य में प्रार्थना करो । द्वार बन्द करना माने अपने पंचेन्द्रियों को अधीन में लायें । जब ईसा कहते हैं कि अतिभाषण की ज़रूरत नहीं, तब मतलब है कि साधनापूर्वक, आत्मसंयम के साथ, ईश्वर से प्रार्थना करें । दृढ विश्वास के साथ प्रार्थना करें । मगर जब एक समाज एक साथ प्रार्थना करता हैं तो ओज और उत्साह के कारण थोडा शब्द बढ सकता हैं, जो सही नहीं है, ऐसा विचार ईसा को नहीं हैं । मगर सीमा का उल्लंघन न हो । प्रार्थना-चैत्तन्य नष्ट न हो, कोलाहल न बढे, ये सारी बातें ध्यातव्य और बाहरी अनुशासन के साथ-ईश्वर और उनकी प्रजा के सामने हम प्रार्थना कर रहे हैं, यह पाव हो। प्रार्थना के वक्त विश्वास और आशा की ज़रूरत है, जिसके बारे में खुद ईसा ने कहा हे, ‘ माँगो ओर तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढो और तुम्हें मिल जाएगा, खटखटाओं और तुम्हारे लिए खोला जाएगा. . . . तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को अच्छी चीजें क्यो नहीं देगा’ (मत्ती 7:7-11) ।
विश्वास और आशा है तो हम निरन्तार और जान बूझ कर प्रार्थना करेंगे । अथवा हम प्रार्थना में सुस्थिर रहेंगे । प्रार्थना की शक्ति के बारे में ईसा ने एक कथा के ज़रिए बताया है । मानो कि तुम्हारे एक दोस्त है । आधी रात को उसने जा कर कहा, प्यारे मित्रो! मुझे दो रोटियाँ उधार में देना, एक मित्र यात्रा के बीच मेरे यहाँ आया है। मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीँ । तब घर के अन्दर से उस दोस्त ने कहा. मुझे सताओ मता मेंने द्वार बन्द किया है। मेरे बच्चे भी अपने साथ बिस्तर पर है। मेैं उठ कर तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकता । में तुमसे कहता हूँ कि वह दोस्त जबर्दस्त प्रेरणा पा कर उठेगा और कोई-न-कोई खाना उसे देगा। मेैं तुमसे कहता हूँ: ‘ माँगो और तुम्हें मिल जायेगा; ढूँढो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जाएगा’ ( लूकस 11:5-8) । तीव्र विश्वास और आशा प्रार्थना की सफलता के ज़रूरी तत्व हैं । सभागृह के एक अधिकारी ने आ कर ईसा से प्रार्थना की: ‘ मेरी बेटी मर गयी है। आइए, उस पर हाथ रखिए और वह जी जायेगी’ ( मत्ती 9:18) । रक्तस्राव से पीडित स्त्री मन-ही-मन कहती थी-यदि मैं उनका वस्त्र भर छु पाऊँ, तो चंगी हो जाऊँगी। ईरग़ ने मुड कर उसे देख लिया और कहा, ‘ बेटी! ढारस रखो। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है. और वह स्त्र चंगी हो गयी (मत्ती 9 : 22) ।
फिर सभागृह के अधिकारी के यहाँ पहुँच कर ईसा ने लोगों को घर से निकाल दिया, द्वार बन्द किया और बालिका के हाथ पकड कर उठाया, वह उठ बैठी (मत्ती 9:26) । सभागृह के अधिकारी और रक्तस्राव से पीडित स्त्री ने ईसा के यास जा कर प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सफल हुईं । हमें भी ऐसी विश्वास दृढता चाहिए । तभी हमारी प्रार्थनाओं को उत्तर मिलेगा ।
ईसा, हम पर कृपा कीजिए प्रार्थना करते हुए अन्धे व्यक्ति ईसा के पीछे हो लिए तो ईसा ने उनसे पूछा: क्या तुम्हें विस्वास है कि मैं यह कर सकता हूँ? उन्होंने कहा, जी हाँ, प्रभु! तब ईसा ने यह कहते हुए उनकी आंखों का स्पर्श किया जैसा तुमने विश्वास किया, वैसा ही हो जाये । उनकी आँखें अच्छी हो गयीं (मत्ती 9: 28-30)।
अपने पास लाये मिरगी के रोगी को शिष्य चंगा नहीं कर पाये । शिष्यों ने ईसा से पूछा कि यह क्यों? इंसा ने कहा, ‘यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड से यह कहो, यहाँ से वहाँ तक हट जा, तो यह हट जाएगा; और तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नही होगा (मत्ती . 17:20) ।
जो मेहनत करते हैं और कठिनाइयों का अनुभव करते हैं, उन्हें सप्रेम बुला कर ईसा सान्त्त्वना देते हैं; ‘थके -माँदे और बोझ से दबे हुए लोगों! तुम सभी मेरे पास आओ । मैं तुम्हें विश्राम दूँगा (मत्ती 11:28) । हम सान्त्वाना की खोज में किन-किन से मिलते हैं,कहाँ कहाँ जाते हैं, हम ईसा के पास जाएँ और अपनी बोझ उतारें। हम उन से सांन्त्वना पायें । आपने वादा तो किया है कि मैं ढारस बँधाऊँगा । ज़रूर वे हमें सान्त्वना देंगे ।
जब ईसा येरीको से जा रहे थे, रास्ते के किनारे बेठे दो अन्धों ने पुकार कर कहा, दाऊद के पुत्र ! हम पर दया कीजिए । ईसा ने उनसे कहा, मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ? तुम्हारी इच्छा क्या हैं । उन्होंने कंहा कि हमें देखनें की शक्ति दे दें । ईसा ने उनकी प्रार्थना सुनी और उनकी आँखों में छू कर उन्हें चंगाईं दी (मत्ती 20: 29-34) । पराये मनुष्यों ने उन्हें यह कह कर डाँटा था कि चुप रहो । किन्तु वे जोर से प्रार्थना’ कर रहे थे । जब दु:ख-दर्द के वक्त हम प्रार्थना करते हैं तब हमारी आवाज़ उठेगी,अत: कोई बीमारी की हालत में जोर से ईश्वर के सामने अपना दु:ख पेश कर रही है ।तो हम बेचैन न हो जाएँ । प्रार्थना करने वाले को आन्तरिक भावों की बाहरी अभिव्यक्ति मात्र हैं, जोरदार शब्द क्या हम आशा और विश्वास के साथ तहे दिल से प्रार्थना का पाते हैं? ज़रा आन्तरिक जांच करें ।
हमारी प्रार्थना की फलसिद्धि की बाधा हमारी पापावस्या है। इसे ईसा ने सन्दर्भोचित ढंग से बताया हैं- जब अर्द्धाग रोगी को ईसा के पास लाये तब ईसा ने रोगी को लेकर आने वालों से इस प्रकार कहा, वह भी रोगी को सुनाते हुए, बेटा तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं ( मारकुत्त 2:5) । वहाँ बैठे-शास्त्री कुछ बडयडा रहे थे तो ईसा ने कहा. मन ही- मन क्या सोय रहे है। उन्होंने शास्त्रियों से कहा तुमलोग यह जानलो कि मानवपुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार मिला हैं । फिर अर्द्धाग रोगी से कहा, उठो और अपनी चारपाई उठा कर घर जाओ (मारकुस 2:11)। ईसा ने अर्द्धाग रोगी को पाप मुक्ति देने के बाद चंगाई दी । यहाँ सूचना है कि कभी-कभी पाप रोगशान्ति का बाधक है। पापमुक्ति चंगाई को आसान बनाता हैं।
आँधी से नाशोन्मुखी नाव पर सवार हो कर शिष्य शिकायत कर रहे थे, उनसे ईसा ने पूछा , तुम लोग इस प्रकार क्यो डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है’ (मारकुस 4:37-40) । शिष्यों ने ईसा से पूछा कि हम क्यों मिरगी के रोगी को चंगा नहीं पाये। ईसा ने कहा कि अपने अल्पविश्वास के कारण मैं यह कहता हुँ, यदि तुम्हें राई के दाने की भाँति विश्वास है तो इस पहाडी से तुम कहो कि इधर से हट जा, तो यह ज़रूर हट जाएगी। अर्थात् तुम्हें कुछ भी असंभव न होगा। हम सुदृढ विश्वास और आशा के साथ प्रार्थना करे ।
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