Jesus - In troble

मुसीबतों में साथ देने वाला,,,

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    क्योंकि उसने दीन हीन का तिरस्कार नहीं किया, उसे उसकी दुर्गति से घृणा नहीं हुई, उसने उससे अपना मुख नहीं छिपाया । उसने उसकी पुकार पर ध्यान दिया (स्तोत्र 22:25) । अपने जीवनानुभव तथा पायी ईश्वरीय सान्त्वना के बारे में स्तोत्रकार दाऊद ने ब्योरा दिया । आज हमें भी ऐसे अनुभवों से होकर गुज़रना पडता है । मगर हमारे प्रभु हमसे एक बात स्पष्टत्त: कहते हैं , मैं ने तुम लोगों से यह सब इसलिए कहा हैं कि तुम मुझ में शान्ति प्राप्त कर सको । संसार में तुम्हें क्लेश सहना पडेगा। परन्तु ढारस रखो – मैंने  संसार पर विजय पायी है (योहन 16:33) । स्तोत्र 119:92  में हम इस प्रकार पढते हैं – यदि तेरी संहिता से मुझे अपार आनन्द नहीं मिला होता, तो मैं अपनी विपत्ति में मर गया होता। जब जीवन में तकलीफें, संकट या बाधायें होती हैं तब हम उनको थामने में असमर्थ होकर थंक जाते हैं, अत्त: वचन कहता है: अत्याचार बुद्धिमान को मूर्ख बनाता और घूस उसे भ्रष्ट कर देती है (उपदेशक 7 : 7) ।
     मगर करुणामय हमारे प्रभु हमारे दर्द के क्षणों में दूर खडे होकर कदापि खुशी नहीं मनाते । वे हमारी मुसीबतों और संकटों को अनदेखा नहीं करेंगे । वे सदा अपना मुँख हमारे उन्मुख रखते हैं । क्योंकि हमारे प्रभु पक्का अनुभवी है, दर्द , तिरस्कार , मानसिक संघर्ष , अकेलापन , अत्याचार आदि के पथों से होकार उन्हें गुजरना पडा है । ईश्वर, जिसके कारण और जिसके द्वारा सबकुछ होता हैं, बहुत से पुत्रों को महिमा तक ले जाना चाहता था । इसलिए यह उचित था कि वह उन सबों की मुक्ति के प्रवर्तक हो , अर्थात् ईसा को दु:ख-भोग के द्वारा पूर्णता तक पहुँचा दे  (इब्रा 2 : 10) । इस प्रकार ऩबी इसायाह हमें याद कराते हैं- वह हमारे ही रोगों को अपने ऊपर लेता था और हमारे ही दु:खों से लदा हुआ था और हम उसे दण्डित, ईश्वर का मारा हुआ और तिरस्कृत समझते थे । हमारे पापों के कारण वह छेदित किया गया हैं । हमारे कुकर्मों के कारण वह कुचल दिया गया है । जो दण्ड वह भोगता था, उसके द्वारा हमें शान्ति मिली हैं और उसके घावों द्वारा हम भले-चंगे हो गये हैं (एश 53:4-5) ।
     हमारे पापों कें प्रायश्चित्त के लिए प्रभु ने दु:ख-भोग अपनाया । अत्त: हमें आशा है, ठीक है, दर्दों में, अकेलेपन में और तिरस्कार के वक्त प्रभु हमारे पास है । 22-वाँ स्तोत्र एक भविष्यवाणी माना जाता है । यहा दृष्टव्य कई कार्य ईसा के जीवन में अन्वर्थ हुए। मेरे ईश्वरा मेरे ईश्वर तु ने मुझे क्यों त्याग दिया? तू मेरी पुकार सुनकर मेरा उद्धार क्यों नहीं करता (22:1) । जब जीवन में हमें कष्ट-नष्ट होतें हैं, अन्धेरा हम पर छाया रहता है, तब हमें लगेगा ईश्वर का सान्निध्य हमें खो गया है । यद्यपि हम प्रार्थना करना चाहेंगे फिर भी न कर पायेंगे । मानो हमारा दिल टूट रहा हैं। हर कोई हमारी उपेक्षा कर चुका है । ईश्वर भी कोई सहारा न देता । ईश्वर को कहाँ ढूँढ पायेंगे, ऐसी असमंजस ! हमें ऐसे अवसर हुए होंगे। मगर हमारे पहले प्रभु इससे भी कठिन परिस्थितियों से होकर गुज़रे थे। इसलिए इस प्रकार कह कर रोये होंगें- लगभग तीसरे पहल ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, एली! एली! लमा समाखतानी’ ! तू ने मुझे क्यों त्याग दिया है? (मत्ती 27:46)। .
    योब के जीवन में भी ऐसे कटू अनुभव हुए, जिसके बारे में हम पढ चुके हैं: अब मेरे प्राण निकल रहे हैं, कष्ट के दिन मुझे घेरे रहते हैं (योब 30:16) । परीक्षाओं, वेदनाओं और समस्याओं की ऊँची लहरें हमारे जीवन में उठेंगी तो हम भी सोचेंगे! हमारे ईश्वर कहाँ है? इसका ज़वाब स्तोत्रकार ने . दिया है: तू ने मेरी दुर्गति देखी, और मेरी आत्मा की पीडा पर ध्यान दिया है (स्तोत्र 31:8) । प्रभु के जाने बिना हमारे जीवन में कुछ भी नहीं होती । हमें सदा यह धारणा हो । मगर यदि हमारे जीवन में कष्टताऐँ होती हैं, दर्दों को सहना पडता है तो प्रभु का लक्ष्य है कि हमारा पूर्ण विशुद्धीकरण हों। स्वर्ण अग्नि में गल कर संशुद्ध हो जाने के लिए समय लगेगा । इसलिए हम भी क्षमापूर्वक इन्तजार करें । धन्य है वह, जो विपति में दृढ बना रहता हैं; परीक्षा में खरा उतरने पर जीव का वह मुकुट प्राप्त होगा (याकूब 1:12)।
   एक बेटे के नाते या बेटी के नाते हमें परीक्षाओं का मुकाबला करना पडता हैं तो यह न सोचें कि ईश्वर ने हमें  छोडा है । हमारे जीवन की विपत्तियाँ तज्जन्य आँसू स्थाई नहीँ । हमारे प्रभु सबों की पुन:स्थापना करेंगे। हर संकट में हम विश्वास करें, प्रभु हमारे साथ हैं । हमारे दर्द और आँसू की तीव्रता उन्हें परिचित हैं । अत: इनसे हमें मुक्ति संभव हैं । धर्मी विपत्तियों से घिरा रहता है । किन्तु उन सबों से प्रभु उसे छुडाता है (स्तोत्र 34:19) ।

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